अविश्वास तेरा ही सहारा

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    रवि अरोड़ा की कलम से साभार

    दस साल के आसपास रही होगी मेरी उम्र जब मोहल्ले में पहली बार जनगणना वाले आये । ये मुई जनगणना क्या होती है मेरी माँ को नहीं पता था । मोहल्ले में तरह तरह की अफ़वाहें थीं । कोई कह रहा था कि जिसके बच्चे दो से ज़्यादा होंगे उन्हें जुर्माना देना पड़ेगा तो कोई कह रहा था कि सरकार लड़कों को ज़बरन फ़ौज में भर्ती करेगी । सो आशंकित माँ ने ज़बरन मुझे घर से बाहर पार्क में भेज दिया । पार्क में देखा कि वहाँ मैं अकेला नहीं था वरन मोहल्ले के तमाम बच्चे थे और उनकी माँओं ने भी किसी अनजाने भय से उन्हें घर निकाला दे रखा था । स्वयं के द्वारा चुनी हुई सरकार पर अविश्वास का यह पहला उदाहरण बचपन में ही देखने को मिल गया था । उसके बाद आपातकाल और 1984 के सिख विरोधी दंगे के दौरान तो साफ़ नज़र आया कि मेरी माँ और मोहल्ले की अन्य औरतें ठीक थीं, सरकारों पर आँख बंद करके विश्वास नहीं किया जा सकता । बाद के दिनो में देश भर में हुए तमाम दंगों और अन्य भयावह घटनाओं और उनमे स्थानीय सरकारों की भूमिका से मेरी यह राय और पुख़्ता होती चली गई । छः दशक बीत गए यह सब देखते-देखते । सरकारें आईं सरकारें गईं मगर अविश्वास के बादल कभी छँटे नहीं । कोरोना संकट के इस दौर में भी सरकारों की तमाम मूर्खताएँ पुनः साबित करने में लगी है कि अविश्वास कोई शाश्वत चीज है और विश्वास जैसे कोई वहम । कोई गिनती तो नहीं हो सकती मगर यक़ीनन मुल्क की अधिकांश आबादी मेरे जैसों की ही होगी । हैरानकुन बात यह है कि पब्लिक को तो सरकारों पर विश्वास नहीं है मगर सरकारों को पब्लिक के अविश्वास पर पूरा विश्वास है ।

     

    हिंडन श्मशान घाट के प्रभारी पंडित मनीष बता रहे हैं कि आजकल पाँच से छः शव रोज़ाना कोरोना मरीज़ों के आ रहे हैं । वैसे अचानक कुल शवों की आमद भी दोगुनी हो गई है और अनुमान लगाया जा रहा है कि सामान्य तरीक़े से मरने वालों में भी अधिकांशत कोरोना के वे मरीज़ होंगे जिन्होंने अपनी जाँच नहीं करवाई अथवा घर पर ही अपना इलाज करवा रहे थे । कोई बड़ी बात नहीं कि देश भर में यही सूरते हाल होगा मगर बड़ी बड़ी चुनावी रैलियों से इस हक़ीक़त को झुठलाया जा रहा है । मरने वालों का सरकारी आँकड़ा भी चुनावी अथवा ग़ैरचुनावी राज्य के हिसाब से बताया जा रहा है । अपनी ताक़त दिखाने को सरकारें नाइट कर्फ़्यू तो लगा रही हैं मगर सरकारी अस्पतालों में वैक्सींन क्यों नहीं लग रही यह बताने की ज़रूरत उन्हें महसूस नहीं होती । उधर, पब्लिक फिर भी मस्त है । उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उसे पता है कि ऐसे तो होता ही है । कोरोना संकट के शुरुआती दौर में सरकारों पर अविश्वास ने करोड़ों लोगों को पैदल सड़कों पर उतार दिया और कमोवेश दोबारा वही हालत बनते नज़र आ रहे हैं । आर्थिक संकट से उबरने को सरकार ने बीस लाख करोड़ रुपयों की घोषणा की । साल होने को आया न सरकार बताती है कि रुपया कहाँ ख़र्च हुआ और न ही जनता को यह जानने में रुचि है । दोनो टेक इट ईज़ी के मोड में हैं । चुनाव के समय राजनीतिक दल बड़े बड़े वादे करते हैं और बाद में हारें या जीतें इनसे कोई नहीं पूछता कि उन घोषणाओं का क्या हुआ ? सबको पता होता है कि वे तो बस जुमले ही होते हैं । अविश्वास और उस अविश्वास पर राजनीतिक दलों के इस विश्वास ने एक ऐसा लोकतंत्र हमें बना दिया है कि जहाँ लाखों-करोड़ों लोगों के सामने कहे गए शब्द के भी कोई मायने नहीं । किसी मायने के भी कोई मायने नहीं । फिर किसके मायने हैं , यह बताने के भी कोई मायने नहीं ।

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